इंदौर। विपत्ति के समय हम सब एक और बाद में एक दूसरे के बाल नोचेंगे...अभी हम सभी मरियल की श्रेणी में आते हैं तो एक-दूसरे का खाना सांझा करेंगे और याद करेंगे कि हमारी सेहत ऐसी तो न थी ...हम ऐसे क्यों हो गए। राजनीतिक रुप से हाशिए पर डाल दिए गए लोग वैचारिक चिंतन कर गैर भाजपाई दलों को एक करने का प्रयत्न करते हैं तब यह बात लगने लगती है कि शहर में बाढ़ आने पर एक-दूसरे का हाथ पकड़ कर हम शहर से बाहर सुरक्षित निकल जाएंगे और जब सब कुछ सामान्य हो जाएगा तब एक-दूसरे को पहचानेंगे ही नहीं।
शहर में आज सांझा विरासत का आयोजन हो रहा है। आयोजन इस मायने में महत्वपूर्ण है कि गैर भाजपाई आठ दल अपने भूतकाल को याद करके गौरवान्वित महसूस करेंगे और हमनें क्या किया यही कहते रहेंगे। वर्तमान में जीने की अपेक्षा अपने भूतकाल को लेकर अहं पाल रहे कई दलों को आत्ममंथन करने की याद आई और वह भी सांझा विरासत के नाम से। इसमें भाग लेने वाले बड़े दलों के नेताओं के अलावा अगर कुछ नामों पर ध्यान दिया जाए तब पता चलता है कि कई लोगों के नाम वर्षों बाद सामने आए हैं जो भूले भटके यादों में खोकर अपनी पुरानी स्कूल को देखने आए हैं कि देखा मैं यहां पढ़ाई करता था और मैंने बहुत अच्छे दिन यहां पर गुजार दिए...अब देखो क्या जर्जर हालत हो रही है। इनमें कई नाम जैसे सुरेश सेठ, चंद्रप्रभाष शेखर, महेश जोशी, रामेश्वर पटेल का संपूर्ण समय कार्यक्रम में केवल एक-दूसरे की बात समझने में ही लग जाएगा क्योंकि अब कांग्रेस के लिए शहर में परिस्थितियां बदल जाएंगी। अगर कोशिश यह है कि पुराने चावल दिखाकर लोगों को खासतौर पर कार्यकर्ताओं को आकर्षित किया जाएगा तब यह तथ्य सामने रखना होगा कि इनके कुकर की तीन-चार सीटियां पहले ही हो चुकी हैं, अब जो भी है इनकी असल मेहनत और पुराने किए अच्छे काम हैं जो आज भी इनकी मार्केट वेल्यू हैं। इंदौर में दूसरे दलों को बुलाने का क्या फायदा है पता नहीं परंतु माकपा, भाकपा, बहुजन महासंघ, जनता दल यूनाटेड, नेशनल कांग्रेस के प्रतिनिधि भी मौजूद रहेंगे जिन्हें शहर में पार्टी के कार्यकर्ता कौन है यह ढूंढने में मुश्किल जरुर होगी। जनता दल के शरद यादव और कांग्रेस के दिग्विजय सिंह जरुर दो ऐसे बड़े नेता हैं जो अपने बलबूते पर भीड़ इकठ्ठा कर सकते हैं। इनमें से भी दिग्विजय सिंह ज्यादा प्रभावशाली हैं। कांग्रेस ने भी यह मान लिया है कि अगर भाजपा का सामना करना है तब सभी दलों को इकठ्ठा करना होगा पर समस्या यह है कि कांग्रेस अपने दम पर जितने वोट ला सकती है उसका दस प्रतिशत वोट भी ये सातों पार्टियां कितनी भी गुलाटियां मार लें शहर में नहीं ला सकतीं फिर कांग्रेस को ऐसा आयोजन करने की जरुरत क्यों पड़ी?
दरअसल इस आयोजन में किसान नेताओं को भी शामिल किया गया है...अगर सांझा विरासत में केवल पार्टियां अपनी-अपनी ढपली अपना-अपना राग करती रहीं तब परिणाम दाल-बाफले के कार्यक्रम जैसा ही होगा जिसमें दाल-बाफले भरपेट खाने के बाद कौन क्या बोल रहा है इससे किसी को मतलब नहीं रहता बल्कि सभी एक अजीब सी सुस्ती में ही रहते हैं। अगर सम्मेलन को किसान आंदोलन पर केंद्रित किया जाता है तब बात बनेगी। किसान आंदोलन को लेकर सभी पार्टियां कोई नए आंदोलन का रोडमैप बनाती हैं और उस पर सही तरीके से अमल होता है तब इस कार्यक्रम की सार्थकता है वर्ना सभी अपने-अपने कम्फर्ट झोन में बैठे ही हैं और सबसे बड़े नेता याने दिग्गी राजा वैसे भी नर्मदा यात्रा की बात कर रहे हैं। शरद यादव से लेकर सीताराम येचुरी और आनंद शर्मा जैसे नेताओं से प्रदेश की राजनीति पर क्या असर पड़ेगा यह सभी जानते हैं परंतु भगतसिंह दीवाने बिग्रेड के माध्यम से बदलाव लाने के ये प्रयास किए जा रहे हैं जिसमें लोकतंत्र की रक्षा के लिए गंभीर चिंतन किए जाने की बात की जा रही है। जहां एक ओर भाजपा ने प्रदेश में बूथ स्तर की योेजना बना ली है और वह चुनाव मोड में आ चुकी है ऐसे में सांझा विरासत के माध्यम से कांग्रेस ने पहले ही सिद्ध कर दिया है कि उसके बस की बात नहीं है और यहां यह देखना काफी रोचक होगा कि कांग्रेसियों में सिंधिया गुट कहीं पर भी नजर नहीं आ रहा है यानी सांझी विरासत केवल दिग्विजय सिंह और कमलनाथ गुट की है इसमें सिंधिया गुट की यह विरासत नहीं है...वैसे यह सांझा विरासत में कौन से नए विचार सामने आते हैं यह देखना दिलचस्प होगा।
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