मन को नियंत्रित करने की बातें सुनने में काफी अच्छी लगती है पर कम लोग ही नियंत्रण की बात को आत्मसात कर पाते है। यह राह अपने आप में बिरली है जिस पर चल पाना हरेक के बस की बात नहीं है क्योंकि नियंत्रण हम आदतों पर नहीं कर पाते तब मन के नियंत्रण की बात बहुत दूर हो जाती है। मन को चंचल कहा गया है पर असल में मन का स्वरुप सकारात्मक और नकारात्मक दोनों रहता है जैसे हीरो और विलेन फिल्मों में रहते है वैसे ही मन की अवस्था भी होती है वह किसी भी घटना को लेकर तत्काल आपको उसके सभी पक्षों से अवगत करवा देता है। और अवगत करवाने वाली प्रक्रिया इस बात पर निर्भर करती है कि आप किस परिवेश में पले बढ़े है और आप किस वातावरण में रह रहे है। मन आदत में पड़ जाता है पर उस दौर में भी आपको लगातार अपनी बात बताता रहता है यह बात अलग होती है कि हम सुनते नहीं है। इन सभी बातों के बीच जब मन को नियंत्रित करने की बात आती है तब मन विद्रोही तेवर ही अपना लेता है व नियंत्रित नहीं होना चाहता वह आवारागर्दी करने लगता है और कई बार बावले की तरह हरकतें भी करता है। वह अपने घोड़े दौड़ाने में ज्यादा विश्वास करता है और बार बार पुरानी यादों के सहारे अपने तर्कों को प्रस्तुत करते रहता है भले ही वर्तमान उससे मेल न खाता हो पर वह अपने तर्को पर अडिग रहने की आदत से बाज नहीं आता।
मन परमात्मा का भेद जानने के लिए भीतर से लालायित रहता है परंतु परिस्थितियों को सच मानकर वह नियंत्रित नहीं होना चाहता और परमात्मा को मानता जरुर है पर जानने का प्रयत्न नहीं करना चाहता। वह जानता है कि उसकी जड़ वह है और चैतन्यता की और जाना है तब परमात्मा की ओढ़ के आगोश में स्वयं को ले जाना पडेगा परंतु फिर भी नहीं मानता। कई बार समय अपने आप यह करवाने के लिए बाध्य करता है और मन परमतत्व को जानने की चाह में नियंत्रित होने की कला को सीखने का प्रयत्न करता है। यह प्रयत्न कठिन होते है इतने कठिन की भटकाव हर क्षण होता ही रहता है। समय परिस्थितियां और स्वयं मन ही भटकाव का कारण होता है। परमात्मा की ओढ़ में मन जब लगता है तब यह रास्ता सुखों की खान की ओर जाने जैसा है यह सुख भौतिक सुखों की तुलना से परे है। इसमें आनंद,सुख और किसी अपने से मिलने की भावनाएं होती है। परमात्मा को देखने,पाने और उसका सामिप्य पाने की लालसा अपने आप में सुखकारी है और यह प्रक्रिया आनंद से भरी है जिसमें बरबस आंखो से कभी भी कही पर भी आंसू ढुलक पड़ते है। आनंदअश्रुओं की धारा जब बहती है तब अपने आप में ऐसे सुख की अनुभूती होती है जिसकी कल्पना सामान्यतौर पर नहीं हो पाती। परमात्मा का अंश याने हम चुंबक की भाती उसकी ओर खींचे चले जाते है पर यह ओढ़ हमें खुद ढूंढना पड़ती है हमें स्वयं प्रयत्न करना पड़ते है तब जाकर परमात्मा की छाया के दर्शन हो पाते है वह भी बिरलो को।
(अनुराग तागड़े)
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